अस्तित्व में आने के बाद से उत्तराखंड में ग्रीन बोनस की मांग हो रही है। साथ ही विकास के ऐसे मॉडल की वकालत हो रही है, जो विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन स्थापित करे। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी भी इकोनॉमी और इकॉलॉजी की वकालत कर रहे, लेकिन सच्चाई यह है कि उत्तराखंड सरीखे पर्वतीय राज्य में वन संरक्षण अधिनियम विकास की राह में अड़चन बन गया है। 2024 तक राज्य सरकार की 741 विकास योजनाओं पर इसलिए काम शुरू नहीं हो पा रहा, क्योंकि इनमें वनीय स्वीकृति नहीं मिल पाई है। इनमें सबसे प्रस्ताव अधिक 614 सड़कों के हैं। पेयजल के 47, सिंचाई के पांच, पारेषण लाइन के छह, जल विद्युत परियोजनाओं के दो, खनन के छह एवं अन्य के 61 मामले लंबित हैं, जिसमें 4650 हेक्टेयर वन भूमि हस्तांतरित होनी हैं। चुनावी सरगर्मी के बीच सड़कों का मुद्दा गरमा रहा है। सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाकर थक चुके ग्रामीणों को लगता है कि चुनाव का बहिष्कार करने से शायद उनकी समस्या की ओर ध्यान जा सके।
उत्तराखंड का 71.05% वन भूमि अधिसूचित है। 1980 से पहले इस भूभाग पर स्थानीय लोगों के अपने हकहकूक थे। लोग वन संपदा का संरक्षण भी करते थे और दोहन भी। वन संरक्षण कानून बनने के बाद से अपनी ही जमीन पर वृक्ष काटने के लिए वन महकमे से अनुमति लेनी होती है।
राज्य में वन एवं पर्यावरण एक बड़ा मुद्दा है, लेकिन लोकसभा चुनाव में उतरे उम्मीदवारों के बीच इस मुद्दे पर कोई चर्चा नहीं हो रही है, जबकि जागरूक लोगों का मानना है कि राज्य के भविष्य के लिए पर्यावरण एवं विकास के बीच संतुलन की नीति बनाना आज की सबसे बड़ी जरूरत है।
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